नयी दिल्ली. पश्चिम बंगाल सरकार ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय से कहा कि विधेयक के रूप में जनता की आकांक्षाओं को राज्यपालों और राष्ट्रपति की ”मनमर्जी और इच्छाओं” के अधीन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कार्यपालिका को विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने से रोका गया है. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) शासित राज्य सरकार ने प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ से कहा कि राज्यपाल संप्रभु की इच्छा पर सवाल नहीं उठा सकते हैं और विधानसभा द्वारा पारित विधेयक की विधायी क्षमता की जांच करने के लिए आगे नहीं बढ़ सकते हैं, जो न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है.
इस बारे में राष्ट्रपति संदर्भ (प्रेसीडेंशियल रेफरेंस) पर सातवें दिन सुनवाई हुई कि क्या न्यायालय राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति के विचार करने के लिए समय-सीमा निर्धारित कर सकता है. पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति एएस चंदुरकर भी शामिल हैं.
पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा, ”जनता की आकांक्षा कार्यपालिका (राज्यपाल और राष्ट्रपति) की मनमर्जी और इच्छाओं के अधीन नहीं हो सकती. कार्यपालिका को कानून बनाने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने से प्रतिबंधित किया गया है. संप्रभु की इच्छा सर्वोच्च है.” पीठ ने हालांकि पूछा, ”आपकी दलीलों के संदर्भ में, क्या आपका यह कहना है कि विधेयकों को मंजूरी देनी होगी, भले ही वे विधायी क्षेत्राधिकार के अनुरूप न हों और उनकी वैधता का परीक्षण अदालतों में किया जा सकता है?” सिब्बल ने कहा कि कार्यपालिका संप्रभु की इच्छा में बाधा नहीं बन सकती और किसी कानून की संवैधानिकता का परीक्षण न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए, न कि कार्यपालिका द्वारा. उन्होंने कहा कि राज्यपालों को विधेयकों पर तत्काल निर्णय लेना होगा, न कि तीन या छह महीने की अवधि में. सिब्बल ने कहा कि आजादी के बाद से शायद ही कोई ऐसा उदाहरण है जब राष्ट्रपति ने संसद द्वारा पारित विधेयक को इसलिए रोक दिया हो क्योंकि यह लोगों की इच्छा थी.
उन्होंने कहा, ”किसी कानून को नागरिकों या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अदालत में चुनौती दी जा सकती है. यह दुर्लभ से दुर्लभतम मामला है कि राज्यपाल यह कहें कि मैं विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता और इसे रोक सकता हूं.” उन्होंने कहा कि एक बार जब कोई विधेयक विधानमंडल द्वारा पारित कर दिया जाता है, तो उसकी संवैधानिकता की धारणा बन जाती है.
जमानत पर छूटे विदेशियों के लिए नीति बनाने पर विचार करे केंद्र : उच्चतम न्यायालय
धोखाधड़ी के एक मामले में आरोपी एक विदेशी नागरिक के जमानत पर रिहा होने के बाद फरार हो जाने की जानकारी मिलने के बाद, उच्चतम न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए एक ठोस नीति की जरूरत रेखांकित की है कि देश में अपराध करने वाले विदेशी नागरिक ‘सजा से बच’ न सके. शीर्ष अदालत ने पिछले साल चार दिसंबर को झारखंड उच्च न्यायालय के मई 2022 के आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें आरोपी एलेक्स डेविड को जमानत दी गई थी.
जब मामला 26 अगस्त को न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए आया तो पीठ ने कहा कि देश में आपराधिक कार्यवाही का सामना करने के लिए एक नाइजीरियाई नागरिक के प्रत्यर्पण पर नाइजीरिया और भारत के बीच कोई द्विपक्षीय संधि नहीं है. पीठ ने कहा, ”विशेष अनुमति याचिका का निस्तारण किया जाता है, जिसमें जमानत रद्द करने के आदेश की पुष्टि की जाती है, लेकिन केंद्र सरकार को उचित नीति बनाने या आवश्यक और उचित समझी जाने वाली आगे की कार्रवाई शुरू करने का अधिकार दिया जाता है, ताकि विदेशी नागरिक भारत में अपराध करने के बाद न्याय की प्रक्रिया से भाग न सकें.” डेविड पर धोखाधड़ी और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम सहित कई अपराधों के लिए मामला दर्ज किया गया था.
उच्च न्यायालय द्वारा जमानत दिए जाने के बाद, आदेश को शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई. हालांकि उच्चतम न्यायालय को बताया गया कि डेविड जमानत पर बाहर आने के बाद फरार हो गया है. इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने केंद्र से ऐसे मामलों में प्रक्रिया और दिशा-निर्देशों के बारे में सवाल किया. केंद्र ने एक हलफनामा दायर किया, जिसमें विदेश में जांच के लिए व्यापक दिशा-निर्देशों की मौजूदगी, अनुरोध पत्र जारी करने, परस्पर कानूनी सहायता अनुरोध और आपराधिक मामलों के संबंध में सम्मन, नोटिस और न्यायिक दस्तावेजों की तामील का संकेत दिया गया.
पिछले साल चार दिसंबर को, उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया था और केंद्र को उनके दिशानिर्देशों में सुझाए गए उचित उपाय करने का निर्देश दिया था. जब 26 अगस्त को मामला सुनवाई के लिए आया, तो केंद्र की ओर से पेश वकील ने पीठ के समक्ष विदेश मंत्रालय के सलाहकार (कानूनी) द्वारा सॉलिसिटर जनरल को संबोधित एक पत्र प्रस्तुत किया.


