नयी दिल्ली. उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों पर रोक लगा दी, जिनमें यह भी शामिल है कि केवल वे लोग ही किसी संपत्ति को वक्फ के रूप में दे सकते हैं जो पिछले पांच साल से इस्लाम का पालन कर रहे हैं. हालांकि, शीर्ष अदालत ने पूरे कानून पर स्थगन से इनकार कर दिया.
प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने इस विवादास्पद मुद्दे पर 128 पन्नों के अपने अंतरिम आदेश में कहा, ”पूर्व धारणा हमेशा कानून की संवैधानिकता के पक्ष में होती है और हस्तक्षेप केवल दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में किया जा सकता है.” पीठ ने कहा, ”हमें ऐसा नहीं लगता कि पूरे कानून के प्रावधानों पर रोक का कोई मामला बनता है. इसलिए, अधिनियम पर रोक के अनुरोध को खारिज किया जाता है.” हालांकि, ”पक्षों के हितों की रक्षा” और ”’बैलेंसिंग द इक्विटीज” के लिए, न्यायालय ने जिलाधिकारी को वक्फ संपत्तियां तय करने के लिए दी गई शक्तियों सहित कुछ प्रावधानों पर रोक लगा दी तथा वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम भागीदारी के मुद्दे पर आदेश जारी किया.
”बैलेंसिंग द इक्विटीज” वह कानूनी सिद्धांत है, जिसके तहत न्यायालय विवाद में शामिल सभी पक्षों के संभावित लाभ और हानि के साथ-साथ व्यापक सार्वजनिक हितों को भी ध्यान में रखता है, ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि निषेधाज्ञा जैसी न्यायसंगत राहत प्रदान की जाए या नहीं. पीठ ने केंद्रीय वक्फ परिषद को निर्देश दिया कि कुल 20 में से चार से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं होने चाहिए, और राज्य वक्फ बोर्डों में 11 में से तीन से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं होने चाहिए.
आदेश में कहा गया है, ”संशोधित वक्फ अधिनियम की धारा 3 के खंड (आर) का वह भाग जिसमें कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो यह दर्शाता या प्रर्दिशत करता है कि वह कम से कम पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है, उस वक्त तक स्थगित रहेगा जब तक कि राज्य सरकार द्वारा यह निर्धारित करने की प्रक्रिया के लिए नियम नहीं बनाए जाते कि व्यक्ति कम से कम पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है या नहीं.” शीर्ष अदालत ने उस प्रावधान पर भी रोक लगा दी जिसमें कहा गया है कि किसी संपत्ति को ”उस वक्त तक वक्फ संपत्ति नहीं माना जाए जब तक कि नामित अधिकारी अपनी रिपोर्ट नहीं सौंप देता.” इसके अलावा, एक अन्य प्रावधान, जिसमें कहा गया है कि नामित अधिकारी द्वारा संपत्ति को सरकारी संपत्ति घोषित करने के मामले में, उसे राजस्व रिकॉर्ड में आवश्यक संशोधन करना होगा और राज्य सरकार को एक रिपोर्ट सौंपनी होगी.
न्यायालय ने कहा, ”जब तक संशोधित वक्फ अधिनियम की धारा 3सी के तहत वक्फ संपत्ति के स्वामित्व से संबंधित मामले का, धारा 83 के तहत अधिकरण द्वारा शुरू की गई कार्यवाही में अंतिम रूप से निर्णय नहीं हो जाता, न तो वक्फ को संपत्ति से बेदखल किया जाएगा और न ही राजस्व रिकॉर्ड व वक्फ बोर्ड के रिकॉर्ड में की गई प्रविष्टियां प्रभावित होंगी.” पीठ ने कहा कि जब तक विवादित संपत्ति के मालिकाना हक के संबंध में अधिकरण द्वारा अंतिम निर्णय नहीं दिया जाता और अपील पर उच्च न्यायालय के आदेश नहीं आ जाते, किसी तीसरे पक्ष के अधिकार नहीं सृजित किए जाएंगे.
हालांकि, पीठ ने संशोधित कानून की धारा 23 (मुख्य कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति, कार्यकाल और सेवा की अन्य शर्तें) पर रोक नहीं लगाई, लेकिन अधिकारियों को यह निर्देश दिया कि ”जहां तक संभव हो, बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, जो पदेन सचिव भी होते हैं, की नियुक्ति मुस्लिम समुदाय से करने का प्रयास किया जाए.” पीठ ने स्पष्ट किया कि उसके निर्देश प्राथमिक दृष्टया और अंतरिम प्रकृति के हैं तथा ये न तो याचिकाकर्ताओं को और न ही सरकार को कानून की संवैधानिक वैधता पर अंतिम सुनवाई के दौरान पूर्ण दलील पेश करने से रोकते हैं. कानून के अनुसार, वक्फ उस दान को कहा जाता है जो कोई मुस्लिम व्यक्ति धार्मिक या परोपकारी उद्देश्यों के लिए करता है, जैसे मस्जिद, स्कूल, अस्पताल या अन्य सार्वजनिक संस्थानों का निर्माण.
कानून की वैधता के मुद्दे पर, पीठ ने पूर्ववर्ती निर्णयों का हवाला देते हुए कहा, ”अदालतों को किसी कानून के प्रावधानों पर अंतरिम रोक लगाने में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए. इस प्रकार की अंतरिम राहत केवल दुर्लभ और असाधारण मामलों में ही दी जा सकती है….” न्यायालय के फैसले में यह रेखांकित किया गया कि अदालतें हमेशा यह मानकर चलती हैं कि किसी अधिनियम की संवैधानिकता सही है, और उस पर सवाल उठाने वाले व्यक्ति पर यह जिम्मेदारी होती है कि वह यह स्पष्ट रूप से प्रर्दिशत करे कि उसमें संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है.
आदेश में 1923 से अब तक की विधायी पृष्ठभूमि का भी उल्लेख किया गया, जब मुसलमान वक्फ अधिनियम, 1923 बनाया गया था.
पीठ ने कहा, “चूंकि वक्फ संपत्तियों के कुप्रबंधन की समस्या को विधायिका ने पहले ही चिह्नित कर लिया था, इसलिए वर्ष 1923 में ही एक कानून की आवश्यकता महसूस की गई थी.” जहां न्यायालय ने पिछले पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहे व्यक्ति को वक्फ बनाने की पात्रता की शर्त को मनमाना नहीं माना, वहीं यह भी कहा कि ”चूंकि अभी तक यह निर्धारित करने की कोई प्रक्रिया या तंत्र नहीं है कि कोई व्यक्ति कम से कम पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है या नहीं, इसलिए ऐसी व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता.”
कानून पर रोक केवल दुर्लभ, असाधारण मामलों में ही लगाई जानी चाहिए : उच्चतम न्यायालय
उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि कानूनों पर रोक केवल उन ”दुर्लभ और असाधारण” मामलों में लगाई जानी चाहिए, जिनमें प्रावधान ”स्पष्ट रूप से असंवैधानिक, मनमाना और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करने वाले हों.” प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने 128 पन्नों के अपने उस फैसले में यह टिप्पणी की, जिसमें वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 के कुछ प्रमुख प्रावधानों पर रोक लगा दी गई.
रोक लगाये गए प्रावधानों में यह प्रावधान भी शामिल है कि केवल वे लोग ही किसी संपत्ति को वक्फ के रूप में दे सकते हैं, जो पिछले पांच साल से इस्लाम धर्म का पालन कर रहे हों. इन प्रावधानों पर अंतरिम रोक लगा दी गई है, जब तक कि शीर्ष अदालत संशोधित वक्फ कानून की वैधता पर अंतिम निर्णय नहीं ले लेती. शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाते हुए, लंबे समय से स्थापित इस सिद्धांत को दोहराया कि संसदीय अधिनियमों में संवैधानिकता की प्रबल पूर्व धारणा होती है.
न्यायालय ने कहा, ”अब यह कानून का एक स्थायी सिद्धांत बन गया है कि अदालतों को किसी कानून के प्रावधानों पर अंतरिम राहत के रूप में रोक लगाने में अत्यंत सावधानी बरतनी चाहिए. इस प्रकार की अंतरिम राहत केवल दुर्लभ और असाधारण मामलों में ही दी जा सकती है, जब पक्षकार यह स्पष्ट रूप से प्रर्दिशत करने की स्थिति में हों कि या तो कानून बनाने वाली विधायिका के पास इसे बनाने की शक्ति नहीं थी, या फिर वह प्रावधान संविधान के भाग-3 में उल्लेखित किसी प्रावधान या संवैधानिक सिद्धांतों का स्पष्ट रूप से उल्लंघन करता है, या वह स्पष्ट रूप से मनमाना है.”
पीठ ने चरणजीत लाल चौधरी बनाम भारत संघ मामले में, 1950 में दिये गए संविधान पीठ के फैसले का हवाला दिया और कहा कि ”किसी भी अधिनियम की संवैधानिक वैधता के पक्ष में हमेशा एक पूर्व धारणा होती है और चुनौती देने वाले व्यक्ति पर यह भार होता है कि वह यह स्पष्ट रूप से सिद्ध करे कि संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है.” पीठ ने कहा, ”यह एक स्थापित सिद्धांत है कि यह माना जाना चाहिए कि विधायिका अपने लोगों की आवश्यकताओं को समझती है ताकि उसके कानून उन समस्याओं का समाधान करने के प्रति लक्षित हों, जो अनुभव से स्पष्ट हुई हैं….” एक अन्य फैसले का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा कि किसी अधिनियम की संवैधानिकता पर विचार करते समय, उसकी वास्तविक प्रकृति और स्वरूप, वह क्षेत्र जिसमें वह कार्य करना चाहती है तथा उसका उद्देश्य, इन सब पर विचार करना आवश्यक है.
न्यायालय ने यह भी कहा कि संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी कानून को यूं ही असंवैधानिक नहीं घोषित किया जा सकता. पीठ ने कहा, ”ऐसा करते समय, न्यायालय को बिना किसी संदेह के यह मान लेना चाहिए कि संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन इतना स्पष्ट था कि चुनौती दिया गया विधायी प्रावधान टिक नहीं सकता.” न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक प्रावधानों के घोर उल्लंघन के अलावा, संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाये गए कानून को अवैध घोषित नहीं किया जा सकता. पीठ ने कहा, ”यह भी माना गया है कि किसी कानून को असंवैधानिक घोषित करने के लिए, न्यायालय को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन इतना स्पष्ट है कि इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता है.”
केंद्र का ‘वक्फ बाय यूजर’ प्रावधान को हटाना प्रथम दृष्टया मनमाना नहीं: उच्चतम न्यायालय
उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को राहत देते हुए सोमवार को कहा कि नये संशोधित वक्फ कानून में ”वक्फ बाय यूजर” प्रावधान को हटाना प्रथम दृष्टया मनमाना नहीं था और सरकार द्वारा वक्फ की जमीनें हड़प लेने संबंधी दलीलें ‘अमान्य’ है. ‘वक्फ बाय यूजर’ से आशय ऐसी संपत्ति से है, जहां किसी संपत्ति को औपचारिक दस्तावेज के बिना भी धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए उसके दीर्घकालिक उपयोग के आधार पर वक्फ के रूप में मान्यता दी जाती है, भले ही मालिक द्वारा वक्फ की औपचारिक, लिखित घोषणा न की गई हो. यह प्रावधान नये कानून को चुनौती देने में विवाद का मुख्य कारण बन गया.
शीर्ष अदालत ने सोमवार को एक अंतरिम आदेश में कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों पर रोक लगा दी, हालांकि उसने कानून पर पूरी तरह से रोक नहीं लगाई और कई प्रावधानों को बरकरार रखा, जिनमें वक्फों के पंजीकरण को अनिवार्य करने के अलावा ‘वक्फ बाय यूजर’ को हटाने का प्रावधान भी शामिल है. शीर्ष अदालत ने कहा कि केंद्र ने दुरुपयोग को देखते हुए ‘वक्फ बाय यूजर’ प्रावधान को हटा दिया और प्रत्याशित रूप से यह ”मनमाना” नहीं था. यह अंतरिम आदेश प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने पारित किया. जिन प्रावधानों पर रोक लगाई गई थी, उनमें एक उपबंध शामिल था जिसके अनुसार पिछले पांच वर्षों से इस्लाम का पालन करने वालों के लिए ही वक्फ बनाना अनिवार्य था.
संशोधित कानून का विरोध करने वालों की एक प्रमुख दलील भविष्य में ”वक्फ बाय यूजर” को समाप्त करने की थी. प्रधान न्यायाधीश की ओर से लिखे गए फैसले में कहा गया है, ”यदि 2025 में विधायिका को यह पता चलता है कि ‘वक्फ बाय यूजर’ की अवधारणा के कारण, बड़ी संख्या में सरकारी संपत्तियों पर अतिक्रमण किया गया है और इस खतरे को रोकने के लिए, वह उक्त प्रावधान को हटाने के लिए कदम उठाती है, तो उक्त संशोधन को प्रथम दृष्टया मनमाना नहीं कहा जा सकता.” पीठ ने कहा कि विधायी मंशा वक्फ प्रावधानों के दुरुपयोग को रोकना और सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा करना है.
वर्ष 1995 के कानून के तहत, ‘वक्फ बाय यूजर’ किसी संपत्ति को धार्मिक या धर्मार्थ बंदोबस्ती के रूप में मान्यता देता था, यदि उसका उपयोग लंबे समय से ऐसे उद्देश्यों के लिए किया जाता रहा हो, भले ही उसके मालिक ने कोई औपचारिक दस्तावेज न दिया हो.
कुल 128 पृष्ठों के आदेश में आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड द्वारा हजारों एकड़ सरकारी भूमि को वक्फ संपत्ति के रूप में अधिसूचित करने जैसे उदाहरणों का हवाला दिया गया, जिसे बाद में शीर्ष अदालत ने रद्द कर दिया था.
आदेश में कहा गया कि इस तरह के ”दुरुपयोग” को देखते हुए, संसद को इस प्रावधान को भविष्य में समाप्त करने का पूरा अधिकार है.
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ”इसलिए, उक्त प्रावधान पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं होगा. इसलिए, याचिकाकर्ताओं की यह दलील कि वक्फ में निहित भूमि सरकार द्वारा हड़प ली जाएगी, प्रथम दृष्टया बेबुनियाद है.” संशोधित कानून के अनुसार, सभी वक्फों को एक औपचारिक विलेख द्वारा सर्मिथत होना चाहिए और वक्फ बोर्ड के साथ पंजीकृत होना चाहिए.


