‘संदेह से परे’ सिद्धांत के गलत इस्तेमाल के कारण दोषियों को बरी किया जा रहा: उच्चतम न्यायालय

vikasparakh
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नयी दिल्ली. उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि ‘संदेह से परे’ सिद्धांत के ‘गलत इस्तेमाल’ के कारण वास्तविक अपराधी कानून के शिकंजे से बच निकलने में कामयाब हो जाते हैं और बरी होने का ऐसा हर मामला समाज की सुरक्षा की भावना के विरुद्ध एवं आपराधिक न्याय प्रणाली पर एक धब्बा है.

नाबालिग लड़की से बलात्कार के दो आरोपियों को दोषी ठहराने के निचली अदालत के फैसले को कायम रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अक्सर ऐसे मामले देखने में आते हैं, जहां मामूली विसंगतियों, विरोधाभासों और कमियों के आधार पर उन्हें उचित संदेह के मानक तक बढ़ाकर बरी कर दिया जाता है.

न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि अदालतों को समाज की जमीनी हकीकत के प्रति संवेदनशील होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कानून का उद्देश्य दबाया न जाए और विधायिका द्वारा बनाई गई व्यवस्था सही भावना के साथ इच्छित व्यक्तियों तक पहुंचें. पीठ ने कहा कि न केवल किसी निर्दोष को उस चीज के लिए सजा नहीं मिलनी चाहिए जो उसने नहीं की, बल्कि किसी भी अपराधी को अनुचित संदेह और प्रक्रिया के गलत इस्तेमाल के आधार पर बरी नहीं किया जाना चाहिए.

शीर्ष अदालत ने कहा, “प्रक्रियात्मक शुचिता के महत्व के बावजूद, यह पूरी व्यवस्था की पूर्ण विफलता का मामला होता है जब कोई अपराधी, वह भी जघन्य यौन अपराध का, पीड़िता को प्रक्रियात्मक नियमों के गलत इस्तेमाल में उलझाकर, पीड़िता की जानकारी के बिना और पीड़िता के किसी नियंत्रण के बिना, मुक्त घूमने में सफल हो जाता है.” पीठ ने पटना उच्च न्यायालय के सितंबर 2024 के फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें दो आरोपियों को बरी कर दिया गया था. इस मामले में निचली अदालत ने दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.

शीर्ष अदालत ने पीड़िता के पिता द्वारा उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर अपना फैसला सुनाया.
पीठ ने कहा कि उल्लेखनीय रूप से, “संदेह से परे” सिद्धांत को अभियोजन पक्ष के मामले में किसी भी और हर संदेह के रूप में गलत समझा गया है. शीर्ष अदालत ने कहा कि अक्सर उच्चतम न्यायालय के सामने ऐसे मामले आते हैं, जिनमें मामूली विसंगतियों, विरोधाभासों और कमियों के आधार पर आरोपियों को बरी कर दिया जाता है.

पीठ ने कहा कि संदेह से परे के सिद्धांत का अंर्तिनहित आधार यह है कि किसी भी निर्दोष को उस अपराध के लिए सजा नहीं मिलनी चाहिए जो उसने किया ही नहीं. अदालत ने कहा, “लेकिन इसका दूसरा पहलू, जिसके बारे में हम जानते हैं, वह यह है कि कई बार इस सिद्धांत के गलत इस्तेमाल के कारण वास्तविक अपराधी कानून के चंगुल से बच निकलने में कामयाब हो जाते हैं.” पीठ ने कहा, “किसी वास्तविक अपराधी को बरी करने का प्रत्येक उदाहरण समाज की सुरक्षा की भावना के विरुद्ध है तथा आपराधिक न्याय प्रणाली पर धब्बा है.” पीठ ने कहा कि कई बार पीड़ित खुद को “असंवेदनशील पक्षों से भरी” व्यवस्था के खिलाफ खड़ा पाते हैं और कई बार पीड़ित खुद को मौजूदा कानूनों की प्रक्रियागत पेचीदगियों के साथ संघर्ष में पाते हैं.

मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि 2016 में होली के कुछ महीने बाद पीड़िता अस्वस्थ महसूस करने लगी और एक जुलाई 2016 को जांच के बाद पता चला कि वह तीन महीने की गर्भवती है. फिर उसने बताया कि लगभग तीन-चार महीने पहले दोनों आरोपियों ने उससे बलात्कार किया था. भोजपुर जिले में एक प्राथमिकी दर्ज की गई और अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया.
निचली अदालत ने दोनों आरोपियों को बलात्कार और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई.

बाद में, उच्च न्यायालय ने अभियोजन पक्ष के मामले में कमियों का उल्लेख करते कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ मामला साबित करने में असमर्थ रहा. पीड़िता की आयु से संबंधित मुद्दे पर विचार करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि अदालतों को पीड़ितों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के प्रति सजग रहना चाहिए, विशेषकर उन पीड़ितों के प्रति जो देश के दूरदराज के क्षेत्रों में रहते हैं. न्यायालय ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में शैक्षिक और पहचान संबंधी दस्तावेजों में विसंगतियां अज्ञात नहीं हैं और ऐसी परिस्थितियों में अदालतों को समाज की जमीनी हकीकत के प्रति संवेदनशील होना चाहिए. निचली अदालत के आदेश को कायम रखते हुए पीठ ने दोषियों को दो सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया.

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